Sunday, May 25, 2008

भोपाल में पत्रिका पहली नजर

भोपाल
कल रातको जब में अपने आशियाने को लौट रहा था तभी रस्ते में मुझे कुछ नयापन सा लगा।
मन किया कि जरा अपने दोस्त से कहूँ गाड़ी रोको और में इनसे पता कर लू आख़िर क्या हो रहा है ?
मेरे लिए भोपाल में केन्द्र का स्थान बन चुका बोर्ड ऑफिस चोराहा भी सजाया जा रहा था। मैं ये सब सोच ही रहा था की मेरे दोस्त ने बाइक रोक दी मेरे मन का चाहा हो गया। मगर इतना सहसा नही कर पाया कि वापस पीछे जाकर वहां काम करने वालों से कुछ पूंछ पाता ।
खेर मन मैं कहीं ये अंदाज तो था ही कि अगर ये मीडिया से जुड़े लोग कर रहे है तो शायद पत्रिका वाले ही कर रहे होंगे क्योकि हो सकता है। अगले दिनों में पत्रिका निकलेगा या फ़िर कोई बता रहा था कि भास्कर का संस्करण स्थापना दिवस आने वाला है उसकी तेयारी भी हो सकती थी, मन जानने को बेताब था मगर आलस्य सबसे बड़ी बीमारी होती है कुछ नही किया जा सका सब को कल पर दल दिया गया कि कल देखेंगे जो भी होगा। अभी तो घर चलो जो बात करो रात को खाना खाने के बाद के नींद आ गई तो सवेरे ही कुछ पाता चला. सवेरे हमारे यहाँ जो होकर आता है वो जनता था कि में राजस्थान से हूँ उसने हमारे रोजाना के पेपर के साथ पत्रिका भी डाल दिया क्योकि उसे शायद ये उम्मीद थी कि मैं तो उसका पक्का ग्राहक होऊंगा. जागते ही मेरे साथियों से पता चला कि पत्रिका भी आया है . जिज्ञासा से पेपर लेकर देखा कि क्या है जरा मैं भी तो देख लूँ सबसे पहले कि पंक्तियों के शुरुआत के दो चार शब्दों कों पढ़कर आगे पढने कि जरूरत ही नही पड़ी क्योकि बचपन से उसे ही तो पढ़ते आए है पंक्तियाँ वाल्तेयर कि थी हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊ फ़िर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों कि रक्षा करूँगा -वाल्तेयर आगे लिखा था पत्रिका-य एषु सुप्तेशु जागर्ति . कुछ नहीं बदला बस यहाँ आकर राजस्थान का साथ छुट गया है पहले आवरण पर लिखा था सुप्रभात भोपाल धन्य हुए हम यहाँ आकर शीर्षक से पत्रिका के प्रतिनिधि के तौर पर शहर और प्रदेश कों एक संदेश था एक संबोधन था जिसके अंत मैं लिखा था जहाँ भी जायेंगे ,रौशनी लुटायेंगे किसी चराग का अपना मकां नही होता . ये तो थी पत्रिका कि बात मगर इसमे कुछ कुछ मेरे जैसा ही है मुझे लगा कि जैसे पत्रिका अपने कों भोपाल में आकर धन्य मन रहा है मैं भी इस शहर मैं आकर धन्य हो गया हूँ जीवन में पहली बार किसी अखबारों का इस तरह का माहौल देख रहा हूँ अगर किसी दुसरे शहर में होता तो ये सभी कभी नहीं देखा पता और नही इससे कुछ सीख पाता तो बस इस शहर से यही कहना है कि इसने क=मुझे बहुत कुछ सिखने कों दिया और नया नया मौका देता ही जा रहा है कि मैं सीखता चला जाऊ . बस इसी कारण से तो ये शहर अब अपना-सा ही लगने लगा है .

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